सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि शिक्षा सांस्कृतिक शक्ति का एक बहुत महत्वपूर्ण स्रोत है और यह नहीं कहा जा सकता है कि संविधान-पूर्व संस्था संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार का दावा करने की हकदार नहीं है। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) की अल्पसंख्यक स्थिति के प्रश्न पर दलीलें सुन रही है। पीठ ने कहा कि कोई भी संस्थान जो अनुच्छेद 30 की आवश्यकताओं को पूरा करता है, वह अधिकार का दावा करने का हकदार है, भले ही इसकी स्थापना संविधान को अपनाने से पहले की गई हो या उसके बाद।
एमयू मामले की सुनवाई कर रही पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, सूर्य कांत, जे बी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल थे, उन्होंने कहा कि किसी को यह भी समझना होगा कि यह (1920) एक ऐसा समय था जब पूर्ण नियंत्रण शाही शक्ति में निहित था। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि शिक्षा सांस्कृतिक शक्ति का एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्रोत है और हमने इसे आजादी से पहले देखा है और हमने इसे आजादी के बाद भी देखा है।
सीजेआई ने कहा कि कानून ऐसा नहीं है कि कोई अनुच्छेद 30 के तहत अधिकार का दावा तभी कर सकता है जब संस्था 1950 के बाद स्थापित की गई हो। सुनवाई के दौरान पीठ ने यह भी पूछा कि क्या 1920 से गैर-मुस्लिमों को एएमयू का कुलपति या प्रति-कुलपति नियुक्त किया गया है। इस पर सरकार के वकील तुषार मेहता ने कहा कि उन्हें बताया जा रहा है कि चार गैर-मुस्लिमों को नियुक्त किया गया है।
पीठ ने कहा ऐसा क्यों है कि संविधान के आने से पहले और संविधान के बाद, लगातार सरकारों द्वारा कुलपतियों की प्रमुख पसंद मुस्लिम रही है। यह निश्चित रूप से एक कारक है जिसे ध्यान में रखना होगा।
बुधवार को जैसे ही सुनवाई शुरू हुई, सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि रिकॉर्ड से यह पता चलता है कि एएमयू और बीएचयू (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) दोनों को उस समय तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से प्रति वर्ष 1 लाख रुपये मिलते थे। आज की तारीख में, एएमयू को प्रति वर्ष 1,500 करोड़ रुपये मिलते हैं।



